गए सुभायँ राम जब चाप समीपहि ।
सोच सहित परिवार बिदेह महीपहि II ९९ II
कहि न सकति कछु सकुचति सिय हियँ सोचइ ।
गौरि गनेस गिरीसहि सुमिरि सकोचइ II १०० II
अंतरजामी राम मरम सब जानेउ ।
धनु चढ़ाइ कौतुकहिं कान लगि तानेउ II १०३ II
प्रेम परखि रघुबीर सरासन भंजेउ।
जनु मृगराज किसोर महागज भंजेउ II १०४ II
भावार्थ :- जब भगवान श्रीराम सहज भावसे धनुषके समीप गये, तब परिवारसहित जनकपुर नरेश विदेह (राजा जनक) सोचमें पड़ गये II ९९ II संकोचवश श्रीजानकीजी कुछ कह नहीं पातीं, मन-ही-मन सोच करती हैं और पार्वती, गणेश तथा महादेवजीका स्मरण करके उन्हें संकोचमें डाल रही हैं II १०० II अन्तर्यामी प्रभु श्रीरामने विदेहकुमारीका सारा मर्म जान लिया (अर्थात वे मिथिलाकुमारीके मनका दुःख समझ गये) बस उन्होंने कौतुकसे ही धनुषको चढ़ाकर कानतक तान लिया II १०३ II श्रीजनकनन्दनीके प्रेमको परखकर भगवान श्रीरघुवीरने धनुषको उसी प्रकार तोड़ दिया, जैसे कोई सिंहका बच्चा बड़े भारी हाथीको मार डाले II १०४ II
सोच सहित परिवार बिदेह महीपहि II ९९ II
कहि न सकति कछु सकुचति सिय हियँ सोचइ ।
गौरि गनेस गिरीसहि सुमिरि सकोचइ II १०० II
अंतरजामी राम मरम सब जानेउ ।
धनु चढ़ाइ कौतुकहिं कान लगि तानेउ II १०३ II
प्रेम परखि रघुबीर सरासन भंजेउ।
जनु मृगराज किसोर महागज भंजेउ II १०४ II
भावार्थ :- जब भगवान श्रीराम सहज भावसे धनुषके समीप गये, तब परिवारसहित जनकपुर नरेश विदेह (राजा जनक) सोचमें पड़ गये II ९९ II संकोचवश श्रीजानकीजी कुछ कह नहीं पातीं, मन-ही-मन सोच करती हैं और पार्वती, गणेश तथा महादेवजीका स्मरण करके उन्हें संकोचमें डाल रही हैं II १०० II अन्तर्यामी प्रभु श्रीरामने विदेहकुमारीका सारा मर्म जान लिया (अर्थात वे मिथिलाकुमारीके मनका दुःख समझ गये) बस उन्होंने कौतुकसे ही धनुषको चढ़ाकर कानतक तान लिया II १०३ II श्रीजनकनन्दनीके प्रेमको परखकर भगवान श्रीरघुवीरने धनुषको उसी प्रकार तोड़ दिया, जैसे कोई सिंहका बच्चा बड़े भारी हाथीको मार डाले II १०४ II
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