सीता परम रुचिर मृग देखा । अंग अंग सुमनोहर बेषा ॥
सुनहु देव रघुबीर कृपाला । एहि मृग कर अति सुंदर छाला ॥
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही । आनहु चर्म कहति बैदेही ॥
भावार्थ :- सीताजीने उस परम सुंदर हिरनको देखा, जिसके अंग-अंगकी छटा अत्यन्त मनोहर थी । (वे कहने लगीं)- हे देव ! हे कृपालु रघुवीर ! सुनिए । इस मृगकी छाल बहुत ही सुंदर है । जानकीजीने कहा- हे सत्यप्रतिज्ञ प्रभो ! इसको मारकर इसका चमड़ा ला दीजिए ।
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी । धाए रामु सरासन साजी ।
भावार्थ :- प्रभुको देखकर मृग भाग चला । श्रीरामचन्द्रजी भी धनुष चढ़ाकर उसके पीछे दौड़े ।
मरम बचन जब सीता बोला । हरि प्रेरित लछिमन मन डोला ॥
बन दिसि देव सौंपि सब काहू चले ।
भावार्थ :- जब सीताजी कुछ मर्म वचन (हृदयमें चुभनेवाले वचन) कहने लगीं, तब भगवानकी प्रेरणासे लक्ष्मणजीका मन भी चंचल हो उठा । वे (पर्णकुटीरके बाहर लक्ष्मण-रेखा बनाकर) श्रीसीताजीको वन और दिशाओंके देवताओंको सौंपकर चले I
सून बीच दसकंधर देखा । आवा निकट जती कें बेषा ॥
सो दससीस स्वान की नाईं । इत उत चितइ चला भड़िहाईं ॥
नाना बिधि करि कथा सुहाई । राजनीति भय प्रीति देखाई ॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं । बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं ॥
तब रावन निज रूप देखावा । भई सभय जब नाम सुनावा ॥
क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ ।
चला गगनपथ आतुर I
भावार्थ :- दशमुख रावण सूना मौका देखकर यति (साधु-संन्यासी)-के वेषमें श्रीसीताजीके समीप आया I वही दस सिर वाला रावण कुत्तेकी तरह इधर-उधर ताकता हुआ भड़िहाई (सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँड़ों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है । उसे 'भड़िहाई' कहते हैं ।) (चोरी)-के लिए चला । साधुके वेशमें लंकापति रावणने अनेकों प्रकारकी सुहावनी कथाएँ रचकर सीताजीको राजनीति, भय और प्रेम दिखलाया । सीताजीने कहा- हे यति गोसाईं ! सुनो, तुमने तो दुष्टकी तरह वचन कहे I तब रावणने अपना असली रूप दिखलाया और जब नाम सुनाया तब तो सीताजी भयभीत हो गईं । फिर (सीताजीके कटु वचन सुनकर) क्रोधमें भरकर असुरेश्वर रावणने सीताजीको रथ पर बैठा लिया और वह बड़ी उतावलीके साथ आकाश मार्ग से चला I
सुनहु देव रघुबीर कृपाला । एहि मृग कर अति सुंदर छाला ॥
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही । आनहु चर्म कहति बैदेही ॥
भावार्थ :- सीताजीने उस परम सुंदर हिरनको देखा, जिसके अंग-अंगकी छटा अत्यन्त मनोहर थी । (वे कहने लगीं)- हे देव ! हे कृपालु रघुवीर ! सुनिए । इस मृगकी छाल बहुत ही सुंदर है । जानकीजीने कहा- हे सत्यप्रतिज्ञ प्रभो ! इसको मारकर इसका चमड़ा ला दीजिए ।
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी । धाए रामु सरासन साजी ।
भावार्थ :- प्रभुको देखकर मृग भाग चला । श्रीरामचन्द्रजी भी धनुष चढ़ाकर उसके पीछे दौड़े ।
मरम बचन जब सीता बोला । हरि प्रेरित लछिमन मन डोला ॥
बन दिसि देव सौंपि सब काहू चले ।
भावार्थ :- जब सीताजी कुछ मर्म वचन (हृदयमें चुभनेवाले वचन) कहने लगीं, तब भगवानकी प्रेरणासे लक्ष्मणजीका मन भी चंचल हो उठा । वे (पर्णकुटीरके बाहर लक्ष्मण-रेखा बनाकर) श्रीसीताजीको वन और दिशाओंके देवताओंको सौंपकर चले I
सून बीच दसकंधर देखा । आवा निकट जती कें बेषा ॥
सो दससीस स्वान की नाईं । इत उत चितइ चला भड़िहाईं ॥
नाना बिधि करि कथा सुहाई । राजनीति भय प्रीति देखाई ॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं । बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं ॥
तब रावन निज रूप देखावा । भई सभय जब नाम सुनावा ॥
क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ ।
चला गगनपथ आतुर I
भावार्थ :- दशमुख रावण सूना मौका देखकर यति (साधु-संन्यासी)-के वेषमें श्रीसीताजीके समीप आया I वही दस सिर वाला रावण कुत्तेकी तरह इधर-उधर ताकता हुआ भड़िहाई (सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँड़ों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है । उसे 'भड़िहाई' कहते हैं ।) (चोरी)-के लिए चला । साधुके वेशमें लंकापति रावणने अनेकों प्रकारकी सुहावनी कथाएँ रचकर सीताजीको राजनीति, भय और प्रेम दिखलाया । सीताजीने कहा- हे यति गोसाईं ! सुनो, तुमने तो दुष्टकी तरह वचन कहे I तब रावणने अपना असली रूप दिखलाया और जब नाम सुनाया तब तो सीताजी भयभीत हो गईं । फिर (सीताजीके कटु वचन सुनकर) क्रोधमें भरकर असुरेश्वर रावणने सीताजीको रथ पर बैठा लिया और वह बड़ी उतावलीके साथ आकाश मार्ग से चला I
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