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Nakhatrana-Bhuj, Kutch-Gujarat, India
World's No. 1 Database of Lord Bajrang Bali Statues and Temples in India and Abroad on Internet Social Media Site.**Dy. Manager-Instrumentation at Archean Chemical Industries Pvt. Ltd., Hajipir-Bhuj (Gujarat). Studied BE, Instrumentation and Control Engineering (First Class) at Govt. Engineering College, Gandhinagar affiliated to Gujarat University.**

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Monday 10 August 2015

सुंदरकाण्ड_श्रीरामचरितमानस_गोस्वामी तुलसीदास रचित

दसमुख सभा दीखि कपि जाई । कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता । भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥
देखि प्रताप न कपि मन संका । जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद ।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद ॥
कह लंकेस कवन तैं कीसा । केहि कें बल घालेहि बन खीसा ॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही । देखउँ अति असंक सठ तोही ॥
मारे निसिचर केहिं अपराधा । कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा । कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी । मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे । तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा । कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥
भावार्थ :- हनुमानजीने जाकर लंकाधिपति रावणकी सभा देखी । उसकी अत्यंत प्रभुता (ऐश्वर्य) कुछ कही नहीं जाती I देवता और दिक्पाल हाथ जोड़े बड़ी नम्रताके साथ भयभीत हुए सब रावणकी भौं ताक रहे हैं (उसका रुख देख रहे हैं) I उसका ऐसा प्रताप देखकरभी हनुमानजीके मनमें जरा भी डर नहीं हुआ । वे ऐसे निःशंख खड़े रहे, जैसे सर्पोंके समूहमें गरुड़ निःशंख (निर्भय) रहते हैं I हनुमानजीको देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हँसा । फिर पुत्र-वध (अक्षयकुमार)- का स्मरण किया तो उसके हृदयमें विषाद उत्पन्न हो गया I लंकाधिपति रावणने कहा- रे वानर ! तू कौन है ? किसके बल पर तूने वन (अशोकवाटिका)- को उजाड़कर नष्ट कर डाला ? क्या तूने कभी मुझे (मेरा नाम और यश) कानोंसे नहीं सुना ? रे शठ ! मैं तुझे अत्यंत निःशंख देख रहा हूँ I तूने किस अपराधसे राक्षसोंको मारा ? रे मूर्ख ! बता, क्या तुझे प्राण जानेका भय नहीं है ? (तब हनुमानजीने प्रत्युत्तर देते हुए कहा) हे (राक्षसोंके) स्वामी ! मुझे भूख लगी थी, (इसलिए) मैंने फल खाए और वानर स्वभावके कारण वृक्ष तोड़े । हे (निशाचरोंके) मालिक ! देह सबको परम प्रिय है । कुमार्ग पर चलने वाले (दुष्ट) राक्षस जब मुझे मारने लगे I तब जिन्होंने मुझे मारा, उनको मैंने भी मारा । उस पर तुम्हारे पुत्र (इन्द्रजीत)- ने मुझको बाँध लिया (किंतु), मुझे अपने बाँधे जानेकी कुछ भी लज्जा नहीं है । मैं तो अपने प्रभु (श्रीराम)- का कार्य करना चाहता हूँ I

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